लेख
महासमुंद ट्रैक सीजी गौरव चंद्राकर
श्री गोपाल व्यास जी का जन्म 15 फरवरी 1932 को हुआ था .आपके पिता श्री पूनमचंद व्यास और माता श्रीमती जेठा बाई व्यास के दिए संस्कारों के साथ उन्होंने अपनी जन्मजात प्रतिभा का विस्तार किया । आपने जबलपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की थी । इस तरह उनके व्यक्तित्व में संस्कारों के साथ वैज्ञानिकता का जो समावेश हुआ, वह काफी गहराई तक पैठ गया । शिक्षा प्राप्ति के बाद भिलाई स्टील प्लांट में सेवा आरम्भ की और शीर्ष पदों पर पहुंचे ,पर उनका मन सामाजिक सरोकारों में अधिक रमता चला गया । आखिरकार समाज हित के लिए समर्पण की ललक से वे भिलाई स्टील प्लांट की सुविधा युक्त सेवाएं और सुरक्षित – सुनहरा भविष्य छोड़कर समाज सेवा का चुनौती पूर्ण मार्ग पर चल पड़े।
श्री गोपाल व्यास जी सहज -सरल व्यक्तित्व के धनी और सादगी पसंद व्यक्ति थे।वे अनेक वर्षों तक समाज सेवा में संलग्न रहे ।आर.एस.एस. के अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहे और संगठन के कार्य में जीवन समर्पित कर दिये ।सन 2006 से 2012 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे ।अपनी विचारधारा के अनुरूप कार्य करने के साथ वैज्ञानिक शिक्षा ,नवीन प्रौद्योगिकी और वैज्ञानिक प्रगति के प्रति उनका झुकाव निरंतर बना रहा । इंजीनियरिंग तो उनके जीवन की पहली अभिरुचि का विषय था ही लेकिन समय के साथ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में योगदान करने का विचार भी पनपा । वे जीवन के जिस पड़ाव पर थे ,वहां से मेडिकल कालेज को देहदान करने का विचार बेहद साहसिक और नवोन्मेषी कहा जा सकता है लेकिन यह अनायास नहीं हुआ बल्कि उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति के रूप में सामने आया ।
उनके परिजनों ने चर्चा में बताया ,कि श्रीगोपाल व्यास जी ने 11 वर्ष पूर्व देहदान करने का संकल्प कर लिया था ,जब रायपुर में एम्स बना था ,उस समय ऐसी खबरें आती थी कि वहां पर चिकित्सा छात्रों के प्रायोगिक कार्यों के लिए मानव शरीरों की कमी है । जिसके कारण विद्यार्थियों को प्रैक्टिकल करने में तकलीफ होती है. यह बात उनके जेहन में थी। वे अक्सर यही बात किया करते थे ,कि अपनी मृत्यु के पश्चात एम्स को ही अपना देह दान करना है । वे अपनी इस प्रतिज्ञा के प्रति इतने अधिक मजबूत थे कि बीच में उन्होंने कई बार जाकर भी यह जानकारी ली। एम्स भी जाते रहे यहां तक कि वहां पर जो चिकित्सक थे उनसे संपर्क करते रहे , कि देहदान में क्या-क्या प्रक्रिया अपनानी पड़ती है ?क्या करना पड़ता है ? उन्हें कभी-कभी यह भी लगता था यदि उनका देहावसान किसी छुट्टी के दिन हो गया तो शरीर किस प्रकार दान किया जाएगा?एम्स वाले एम्बुलेंस भेजेंगे कि नहीं ?छुट्टी के दिन या रविवार के दिन यदि किसी का निधन होता है तो देहदान संभव होता है कि नहीं? कितने घंटे के अंदर देह दान होना चाहिए ? इन सब चीजों के प्रति उनकी जिज्ञासा लगातार बनी रहती थी यहां तक कि उन्होंने अपने कमरे की दीवारों पर भी उसका नंबर और वहां के एनाटॉमी विभाग के प्रभारी का नंबर लिख रखा था कि जैसे ही उनकी मृत्यु हुई उनको तुरंत फोन कर दिया जाए कि उनके शरीर को दान किया जा सके।
आज जबकि सभी धर्म में धार्मिक व्यवस्थाएं बहुत जोरों पर हैं । कर्मकांड पर लोग अधिक ही जोर देने लगे हैं । अपने-अपने विचारों ,मान्यताओं को लेकर नए-नए तर्क खड़े किये जा रहे हैं। हर पुरानी- नई घटना को विज्ञान से जोड़े जाने पर लोगों का परहेज बढ़ है । नेत्र विशेषज्ञ होने के कारण इस परिस्थित को मैं बहुत निकट से देखता-जानता हूं । मुझे ज्ञात है कि नेत्रदान करने ,देहदान करने और कराने में भी बहुत मशक्कत का सामना करना पड़ता है। ऐसे समय में व्यक्ति जब मृत्यु एवं जीवन के लिए चिंतित रहता है ,तब श्री व्यासजी दूसरों के जीवन ही नहीं ,बल्कि अपनी मृत्यु के पश्चात अपनी देह को दान के लिए चिंतित रहे हैं। उनकी यह विचारशीलता वास्तव में एक बड़ी बात रही,अनुकरणीय बात रही ।श्री व्यास संत के रुप में प्रसिद्ध रहे । यह एक वास्तव में ऋषि परम्परा है जिसमें ऋषियों और मुनियों ने अपने शरीर और अस्थियों का दान देने के उदाहरण पेश किए हैं।
और एक महत्वपूर्ण बात यह भी है , उनकी पत्नी और परिवार ने शोक के समय भी संयम और विवेक के साथ उनकी इस इच्छा का सम्मान किया और अपनी सभी सामाजिक धार्मिक मान्यताओं को दरकिनार करते हुए भी श्री गोपाल व्यास जी के देहदान के संकल्प को पूरा किया। यह व्यवस्था की समय रहते हैं उनकी देह एम्स में चिकित्सा छात्रों के अध्ययन के लिये सौंपा जा सके.
श्री गोपाल जी जीवन भर अपने विचारों, एवं जनहित के आदर्शों पर अडिग रहे, आपातकाल में जेल में रहे । मुसीबतें सहते रहे पर कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया ।छत्तीसगढ़ ही नहीं देश भर में उनके योगदान को सदैव याद किया जाता रहेगा। उनके योगदान को वैज्ञानिक जागरूकता के लिये योगदान के रूप में याद किया जायेगा । उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सरकार को आवश्यक पहल कर किसी संस्थान का नामकरण उनके नाम पर करना उचित होगा.
डॉ. दिनेश मिश्र
नेत्र विशेषज्ञ ,
अध्यक्ष अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति