अरुण वोरा को चुनाव में करारा शिकस्त देने वाले नवनिर्वाचित विधायक गजेंद्र यादव को छत्तीसगढ़ के मंत्री मंडल में शामिल किया जा सकता है। बताते चलें, 1998 के चुनाव में स्व हेमचंद यादव ने जब दुर्ग में वोरा परिवार के अभेद गढ़ को ध्वस्त किया, तब दिल्ली बुलाकर स्व अटल बिहारी वाजपेई ने उनकी पीठ थपथपाई थी। वयोवृद्ध भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हे अपने साथ भोजन के लिए भी आमंत्रित किया था। इसके बाद लगातार 15 साल तक स्व हेमचंद यादव विधायक और रमन सरकार में 10 साल कैबिनेट मंत्री रहे। 2023 के चुनाव में इतिहास ने स्वयं को दोहराया है। 2003 के चुनाव में तमाम संभावनाओं को दरकिनार करते हुए जनता ने जोगी सरकार को उखाड़ फेका था। इसके बाद वापसी करने में कांग्रेस को पूरे 15 साल लग गए। इस बार भी तमाम आशाओं के बावजूद जनता ने कांग्रेस की भूपेश सरकार को सिरे से नकार दिया। अधिकांश दिग्गज चुनाव हार गए। बहरहाल, हम बात कर रहे है दुर्ग शहरी सीट पर कांग्रेस की एकतरफा हार पर। दुर्ग सीट पर अरुण वोरा की इतनी बड़ी हार का अंदाजा किसी को नही था। हवा का रुख महज 20 दिन पहले तक अरुण वोरा के पक्ष में था। सियासी पंडितो को मुकाबला कांटे का जरूर लगने लगा था, मगर चुनाव परिणाम ने बता दिया कि दुर्ग में अरुण वोरा के खिलाफ जबरदस्त अंडर करंट था, जिसे अरुण वोरा का चुनावी मंडली भांप न सका। यह गलत चुनावी प्रबंधन का बड़ा उदाहरण है। कई बार के विधायक रहे अरुण वोरा के सिपहसालार यदि ग्रास रूट के माहौल को समझने में नाकाम रहे तो इसे उनका रणनैतिक असफलता ही कहा जायेगा। यह ठीक है कि 4 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दुर्ग पहुंच कर महतारी वंदन योजना की घोषणा के बाद भाजपा के पलड़े में वजन आ गया। आधी आबादी को साधने के बाद यकायक भाजपा मुकाबले में बराबरी पर आ गई। इसके बावजूद देवेंद्र यादव व भूपेश बघेल चुनाव जीत गए। कांग्रेस 33 सीटों पर जीतने में सफल रही। दुर्ग जिले में अरुण वोरा के नजरिए से इससे बड़ी हार कोई और नहीं हो सकती। टिकट मिलने के पहले से ही कहा जा रहा था कि अरुण वोरा अपने राजनीतिक जीवन में अभी सबसे मजबूत स्थिति में है, उन्हे हराना नामुमकिन है। गजेंद्र यादव को प्रत्याशी बने जाने के बाद वोरा खेमे में मुस्कान बिखर गई थी। लेकिन जनता के मन को हल्के में लेना सियासत में आत्मघाती कदम होता है। अरुण यहीं बड़ी चूक कर बैठे। सवाल उठता है कि अरुण वोरा की बड़ी हार के मायने क्या है? एंटी इनकंबेंशिंग फैक्टर, छत्तीसगदियावाद, मोदी मैजिक, परिवारवाद जैसे मसलों का कितना असर रहा। उक्त सभी बातो के इतर भीतर व खुलाघात दुर्ग में खूब चला। रूठों को मनाने के बजाए अरुण वोरा ने इसे नजरंदाज किया। जबकि चुनाव में एक एक आदमी का महत्व है। तीन बार शहर में विधायक रहे अरुण वोरा पहले भी तीन चुनाव हार चुके हैं। उन्हे चुनावी गणित का गहरा ज्ञान होना था। जबकि पहली बार चुनाव लड़ रहे भाजपा के गजेंद्र यादव ने सुनियोजित रणनीति के तहत चुनाव लडा। जिसका उन्हें लाभ मिला, और अब वे मंत्री मंडल में भी शामिल हो सकते हैं, स्व. हेमचंद यादव की तरह।यह भी मंथन करने की बात है कि रायपुर में बृजमोहन अग्रवाल जब सातवीं बार विधायक बन सकते हैं तब पूरी संभावना , विरासत, संसाधन व अवसर होने के बाद भी अरुण वोरा इस भुना क्यों नहीं सके।
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